तमस (उपन्यास) : भीष्म साहनी
बख्शी ने कश्मीरीलाल को रोका, ‘‘यह कौन-सा वक़्त है छेड़खानी करने का। बस, चुप रहो तुम।’’
पर जरनैल बिफर उठा था, ‘‘मैं तुम्हारा पर्दाफाश करूँगा। तुम्हारा कम्युनिस्टों के साथ उठना-बैठना है। मैं जानता हूँ। देवदत्त कम्युनिस्ट के साथ कुबड़े हलवाई की दुकान पर मैंने तुम्हें छैनामुर्ग़ी खाते देखा है।’’
‘‘बस बस, ठीक है जरनैल, और पर्दाफाश नहीं करो,’’ बख्शी ने समझाते हुए कहा।
इतने में चौड़े पायँचोंवाला पाजामा फड़फड़ाते हुए शंकरलाल पहुँच गया।
अँधेरे में प्रभात की पीलिमा मिलने लगी थी। दाएँ हाथ बैंक की ऊँची दीवार पर से अँधेरे की एक और परत झरकर गिर गई थी। सड़क के पार आर्य स्कूल की इमारत में हलवाई की अँगीठी में से धुआँ उठने लगा था। बग़लवाली गली में से हवाखोरी के शौकीन खंखारते, छड़ी ठकोरते किसी-किसी वक़्त निकलने लगे थे। कहीं-कहीं कोई महिला, मुँह-सिर लपेटे गुरुद्वारे की ओर जाती नज़र आती।
बख्शीजी ने हाथ में पकड़े हरीकेन लैंप को ऊपर उठाया और फूँक मारकर बत्ती बुझा दी।
‘‘क्यों, हम पहुँचे हैं बख्शीजी तो आपने बत्ती ही गुल कर दी,’’ शंकर मुनादीवाले ने कहा।
‘‘क्यों, तूने मेरा चेहरा देखना है या मेहताजी का देखना है?’’ बख्शीजी बोले। ‘‘तेल ज़ाया होता है। यह कांग्रेस-कमेटी का लैंप नहीं है, मेरा अपना लैंप है। कांग्रेस-कमेटी से तेल की मंज़ूरी ले दो, मैं इसे दिन-रात जलाए रखूँगा।’’
इस पर दबी आवाज़ में कश्मीरीलाल की पीठ पीछे खड़े-खड़े शंकर बोला, ‘‘सिगरेटों के लिए आपको मंज़ूरी की ज़रूरत नहीं तो मिट्टी के तेल के लिए क्यों होगी?’’
वाक्य बख्शीजी ने सुन लिया पर ज़हर का घूँट पीकर चुप बने रहे। ऐसे लोफ़रों को मुँह लगाना अपना अपमान करवाना था।
‘‘आप तो मालिक हैं बख्शीजी, आपको मंज़ूरी की क्या ज़रूरत है। आपके हुक्म के बिना तो चिड़ी नहीं फड़क सकती,’’ शंकर बोला, फिर मेहताजी की ओर मुखातिब होकर बोला, ‘‘जयहिंद, मेहताजी!’’
‘‘जय हिंद!’’
‘‘मैंने आपको देखा ही नहीं।’’
‘‘तुम अब हमें कहाँ देखते हो शंकर, तुम्हारे पौ-बारह हैं।’’
"आज आप अपना बैग नहीं लाए?"
"बैग की प्रभातफेरी में क्या ज़रूरत है?"
"वाह जी, बैग की सभी जगह ज़रूरत रह सकती है। बीमा का ग्राहक भी फंस सकता है।"
मेहताजी चुप रहे। कांग्रेस का काम करने के साथ-साथ वह बीमा का काम करते थे।
"कभी जबान भी बन्द किया कर, शंकर। मेहताजी तेरे से तिगुनी उम्र के हैं। बड़ों को बड़ा समझते हैं।" बख्शीजी ने कहा।
"मैंने क्या कहा है? मैंने यही पूछा है ना कि बैग नहीं लाए। मैंने यह तो नहीं पूछा कि सेठी से पचास हज़ार का बीमा मिला है या नहीं मिला।"
शंकर ने तीर छोड़ दिया। आम तौर पर शंकर इस ढंग से लगाकर बात नहीं करता था। मुँहफट आदमी था, जली-कटी मुँह पर सुनाता था। पर पचास हज़ार के बीमेवाली चोट बहुत बुरी थी। मेहताजी ऐसे सहमे कि एक शब्द मुँह से नहीं कह पाए। मेहताजी छोटी हस्ती नहीं थे। कुल मिलाकर सोलह बरस जेलों में काटकर आए थे और जिला कांग्रेस-कमेटी के प्रधान थे। और सबसे उजली खादी पहनते थे। उन पर यह आरोप लगाना बड़ी हिमाकत थी, पर अर्से से अफ़वाह चली आ रही थी कि सेठी ठेकेवाले का पचास हज़ार का बीमा उन्हें मिलनेवाला है, और इसके एवज़ मेहताजी सेठी को चुनावों में कांग्रेस का टिकट दिलवानेवाले हैं।
"यह तो भौंका है मेहताजी, इसकी बात को बस, सुन छोड़ा करो।"
“मैंने यह तो नहीं कहा कि मेहताजी ने टिकट का वादा किया है। टिकट देने का अख्तियार तो प्रान्तीय कमेटी को है। और सिफारिश ज़िला कमेटी करेगी। अन्दरखाते प्रधान और मन्त्री फैसला कर लें तो अलग बात है। पर वह काम हम नहीं करने देंगे। दोनों, प्रधान और मन्त्री खड़े सुन रहे हो। बड़े-बड़े ठेकेदारों को टिकट मिलने लगा तो बस कांग्रेस ख़त्म हुई समझो।"
मेहताजी वहाँ से हटकर कश्मीरीलाल से बातें करने लगे। बख्शीजी ने एक और सिगरेट सुलगा ली।